46वीं अंटार्कटिक संसद बैठक के मुख्य बिंदु:
परिचय:
- पिछले महीने भारत ने कोच्चि में 46वीं अंटार्कटिक संधि परामर्श बैठक (ATCM) की मेजबानी की थी। 2007 से अंटार्कटिका में अनियमित पर्यटन के बारे में गंभीर चिंता जताते हुए भारत ने पहली बार बैठक में अंटार्कटिक पर्यटन के लिए एक समर्पित कार्य समूह की शुरुआत की।
- उल्लेखनीय है भारत की मेजबानी में ये संसद 20 से 30 मई तक बैठी, जिसमें 56 देशों ने अंटार्कटिक में वर्चस्व की लड़ाई के खात्मे के लिए एकजुट होकर हिस्सा लिया।
कोच्चि अंटार्कटिक संसद का मुख्य आकर्षण क्या थे?
- इस वर्ष की अंटार्कटिक संसद की कुछ प्रमुख बातें ये थीं: अंटार्कटिक के ‘सर्व समावेशी’ शासन के लिए प्रयास; पर्यटन ढांचे का पहला परिचय और इसके प्रारूपण की शुरुआत; और मैत्री-II अनुसंधान केंद्र की घोषणा।
- इस बार की अंटार्कटिक संसद का सबसे खास मुद्दा बढ़ता टूरिज्म है। वैज्ञानिकों का मानना है कि तेजी से बढ़ता टूरिज्म और ज्यादा ग्लोबल वार्मिंग का कारण बन रहा है। जिसके चलते वहां जल्दी बर्फ पिघलने लगी है।
- अनुमान बताते हैं कि 2023 में, अंटार्कटिका में एक लाख आगंतुक पहुंचे। ऐसे में कोच्चि में उपस्थित सभी अंटार्कटिका संधि पक्ष पर्यटन के लिए एक रूपरेखा की आवश्यकता पर सहमत हुए।
- कोच्चि में, भारत ने अपने 35 साल पुराने मैत्री अनुसंधान केंद्र के उत्तराधिकारी की घोषणा की। भारत से 2030 के दशक की शुरुआत में मैत्री-II चालू होने की उम्मीद है।
- इस बैठक में सऊदी अरब अंटार्कटिक संधि दलों के क्लब में नवीनतम प्रवेशक बन गया।
भारत का संदेश क्या था?
- वसुधैव कुटुम्बकम के अनुयायी के रूप में, भारत ने अंटार्कटिक संसद को सूचित किया कि वह उन देशों के साथ ‘सभी को शामिल करने’ वाला दृष्टिकोण अपनाना चाहता है, जो अंटार्कटिका और उसके संसाधनों को संरक्षित करने की दिशा में काम करना चाहते हैं।
- भारत ने अंटार्कटिक संधि को और अधिक देशों के लिए खोलने की आवश्यकता पर जोर दिया और साथ मिलकर शासन, अनुसंधान और कानून और नीतियों को तैयार करने की जिम्मेदारी उठाई।
अंटार्कटिक संधि को क्यों अपनाया गया?
- अंटार्कटिक संधि पर मूल हस्ताक्षरकर्ता बारह देश थे जिन्होंने 1 दिसंबर, 1959 को इस पर हस्ताक्षर किए गए थे। यह संधि 1961 में लागू हुई और तब से कुल 56 देश – जिनमें 1983 में भारत भी शामिल है – इसमें शामिल हो चुके हैं।
- उल्लेखनीय है कि शीत युद्ध के दौरान हस्ताक्षरित अंटार्कटिक संधि ने अंटार्कटिका को प्रभावी रूप से “नो मैन्स लैंड” के रूप में नामित किया, जो अंतर्राष्ट्रीय भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की सीमाओं से बाहर है।
- अंटार्कटिक संधि की कुछ प्रमुख विशेषताएं:
- अंटार्कटिका का उपयोग केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए किया जाएगा तथा किसी भी प्रकार के सैन्यीकरण या किलेबंदी की अनुमति नहीं दी जाएगी।
- सभी हस्ताक्षरकर्ताओं को वैज्ञानिक जांच करने की स्वतंत्रता होगी, तथा उन्हें वैज्ञानिक कार्यक्रमों के लिए योजनाओं को साझा करना चाहिए।
- अंटार्कटिका में कहीं भी परमाणु परीक्षण या रेडियोधर्मी अपशिष्ट पदार्थों का निपटान प्रतिबंधित रहेगा।
- उल्लेखनीय है कि आज यह संधि पृथ्वी के पांचवें सबसे बड़े महाद्वीप अंटार्कटिका में समस्त शासन और गतिविधियों का आधार बनती है।
अंटार्कटिका में भारत की उपस्थिति:
- 1983 से भारत अंटार्कटिक संधि में सलाहकार पक्ष रहा है। इस हैसियत से भारत अंटार्कटिका से संबंधित सभी महत्वपूर्ण निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में मतदान करता है और भाग लेता है। अंटार्कटिक संधि में शामिल 56 देशों में से केवल 29 को ही सलाहकार पक्ष का दर्जा प्राप्त है।
- भारत 1981 से अंटार्कटिका में वैज्ञानिक अनुसंधान कर रहा है। पहला भारतीय अंटार्कटिक अनुसंधान केंद्र ‘दक्षिण गंगोत्री’ स्टेशन की स्थापना 1983 में की गई थी और यह स्टेशन 1990 तक संचालित रहा।
- 1989 में, भारत ने ‘मैत्री’ नाम से अपना दूसरा अंटार्कटिका अनुसंधान केंद्र शिरमाचर ओएसिस में स्थापित किया। यह अभी भी चालू है।
- 2012 में, भारत ने अपने तीसरे अंटार्कटिका अनुसंधान स्टेशन ‘भारती’ का उद्घाटन किया है। भारत एक नया स्टेशन ‘मैत्री II’ खोलने की योजना बना रहा है, जिसकी घोषणा कोच्चि बैठक में की गयी है। इसका संचालन 2030 तक शुरू होने की उम्मीद है।
- 2022 में भारत ने अंटार्कटिक संधि के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि करते हुए अंटार्कटिक अधिनियम पारित किया।
अंटार्कटिका का संरक्षण क्यों महत्वपूर्ण है?
- अंटार्कटिका 14 मिलियन वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला दुनिया का पाँचवाँ सबसे बड़ा महाद्वीप है। इसका लगभग 98% हिस्सा मोटी बर्फ की चादरों से ढका हुआ है, जिसमें पृथ्वी के मीठे पानी के भंडार का लगभग 75% हिस्सा है। यह सफेद महाद्वीप अपने वन्यजीवों और प्राचीन पर्यावरण के लिए अद्वितीय है।
- इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ग्लोबल वार्मिंग परिदृश्य के तहत, पृथ्वी के तीन ध्रुव: उत्तर, दक्षिण और हिमालय, सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। इन ध्रुवों पर पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने की तेज़ दर भी चिंता का विषय है। पर्माफ्रॉस्ट सक्रिय बर्फ की चादर के नीचे जमी चट्टान और मिट्टी की परतें हैं।
- बढ़ते तापमान ने इस पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने की प्रक्रिया को तेज़ कर दिया है, जो बदले में पौधों जैसे कार्बनिक पदार्थों को उजागर करता है और उन्हें सड़ने का कारण बनता है। इससे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन का उत्सर्जन होता है, जिससे वैश्विक जलवायु परिवर्तन में वृद्धि होती है।
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