भारत में लोकतंत्र पर बढ़ रहा लोगों का भरोसा, लगातार कम हो रहा है NOTA
- अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां भले ही 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद भारत को डेमोक्रैसी इंडेक्स में पिछड़ता दिखा रहे हों, लेकिन चुनाव–दर–चुनाव नोटा (सूची में शामिल कोई भी नहीं) के वोट प्रतिशत में आ रही कमी कुछ और बोल रही है।
- अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित सीटों से लेकर सामान्य सीटों तक सभी में नोटा के प्रतिशत में कमी देखी जा रही है।
- उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 2013 में नोटा का चुनाव प्रक्रिया में शामिल किया गया था।
- इसके तहत चुनाव में खड़े सभी उम्मीदवार में किसी को भी पसंद नहीं पाए जाने की स्थिति में मतदाताओं को नोटा को चुनने का अधिकार दिया गया था।
- पिछले दिनों महाराष्ट्र के अंधेरी में विधानसभा के उपचुनाव में शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट की उम्मीदवार रिकार्ड मतों से जीती, लेकिन छह निर्दलीय से भी अधिक मत के साथ दूसरे स्थान पर रहकर नोटा चर्चा में रहा। शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट को छोड़कर अन्य पार्टियों के उम्मीदवार के अभाव में भले ही नोटा दूसरा स्थान लेने में सफल रहा हो, लेकिन हकीकत यही है कि 2013 के बाद धीरे–धीरे नोटा का मिला वोट प्रतिशत कम हो रहा है।
- 2013 से नोटा के लागू होने के बाद साल-दर-साल हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों के आंकड़ों को देंखे, तो 2013 में हुए सभी विधानसभा चुनाव में अनुसूचित जनजाति के आरक्षित सीटों पर42 फीसद मत नोटा को मिला था। वहीं अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर 1.96 फीसद मत नोटा को मिला था। सामान्य सीटों पर नोटा का मत प्रतिशत 1.56 प्रतिशत था।
- वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव के साथ–साथ कई राज्यों में विधानसभा चुनाव भी हुए थे। जिनमें नोटा के खाते में अनुसूचित जनजाति की सीटों02 फीसद, अनुसूचित जाति की सीटों पर 0.92 और सामान्य सीटों पर 0.75 फीसद रह गया।
- 2016 के बाद नोटा के वोट प्रतिशत में कमी का सिलसिला कमोवेश साल–दर–साल जारी रहा। जो 2022 में अब तक हुए विधानसभा चुनावों में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया।
- इनमें अनुसूचित जनजाति की सीटों पर95 फीसद, अनुसूचित जाति की सीटों पर 0.80 फीसद और सामान्य सीटों पर 0.67 फीसद ही नोटा को मिले हैं।
- उल्लेखनीय है कि भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत नोटा के मत प्रतिशत में लगातार आ रही गिरावट को दो रूपों में देखते हैं। एक तो यह सीधे पर लोगों का चुनावी प्रक्रिया में भरोसा बढ़ने को दिखाता है। दूसरे यह इस बात का भी संकेत है कि मतदाताओं के मन से भय खत्म हो रहा है और वह किसी भी उम्मीदवार को वोट देने में स्वतंत्र है।