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अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में ‘क्रीमी लेयर’ के पहचान का मुद्दा:

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अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में ‘क्रीमी लेयर’ के पहचान का मुद्दा:

चर्चा में क्यों है?

  • सर्वोच्च न्यायालय ने 1 अगस्त को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उप-वर्गीकरण की अनुमति दे दी, ताकि इन समुदायों के भीतर अधिक पिछड़े लोगों के लिए अलग से कोटा दिया जा सके।
  • न्यायमूर्ति बी आर गवई ने अपनी राय में लिखा कि “राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में से भी क्रीमी लेयर की पहचान करने के लिए एक नीति विकसित करनी चाहिए ताकि उन्हें सकारात्मक कार्रवाई के लाभ से बाहर रखा जा सके।”

‘क्रीमी लेयर’ का क्या मतलब होता है?

  • उल्लेखनीय है कि क्रीमी लेयर की अवधारणा 1992 में ऐतिहासिक इंदिरा साहनी फैसले से उत्पन्न हुई।
  • मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर, वी पी सिंह सरकार ने 13 अगस्त, 1990 को सिविल पदों और सेवाओं में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों (ओबीसी आरक्षण) के लिए 27% आरक्षण अधिसूचित किया था। इसे इंदिरा साहनी और अन्य ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।
  • 16 नवंबर, 1992 को, न्यायमूर्ति बी पी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाली नौ न्यायाधीशों की पीठ ने क्रीमी लेयर या ओबीसी के बीच सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से अधिक उन्नत सदस्यों को बाहर करने के व्यवस्था के अधीन 27% ओबीसी आरक्षण को बरकरार रखा।
  • क्रीमी लेयर की व्यवस्था यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया था कि आरक्षण का लाभ उन लोगों को मिले जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।
  • हालांकि क्रीमी लेयर, उप-वर्गीकरण के समान नहीं है। क्योंकि उप-वर्गीकरण विभिन्न सामाजिक-आर्थिक या अन्य मानदंडों के आधार पर आरक्षित श्रेणी (जैसे एससी) के समुदाय/जातिवार विभाजन को संदर्भित करता है। तथापि, क्रीमी लेयर से तात्पर्य एक निश्चित जाति/समुदाय के लोगों के समूह से है, जो कुछ मानदंडों के आधार पर बाकी लोगों की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं।

ओबीसी में क्रीमी लेयर की पहचान कैसे की जाती है?

  • क्रीमी लेयर के निर्धारण का तर्क सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति राम नंदन प्रसाद की अध्यक्षता वाली एक विशेषज्ञ समिति द्वारा बनाया गया था, जिसका गठन इंदिरा साहनी फैसले के बाद किया गया था।
  • इस समिति ने 10 मार्च, 1993 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसके आधार पर 8 सितंबर को कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने छह श्रेणियों के लोगों को सूचीबद्ध किया, जिनके बच्चों को क्रीमी लेयर में माना जाएगा। ये हैं:
  1. संवैधानिक/वैधानिक पद;
  2. केंद्र और राज्य सरकारों के समूह ‘ए’ और समूह ‘बी’ के अधिकारी, पीएसयू और वैधानिक निकायों, विश्वविद्यालयों के कर्मचारी;
  3. सशस्त्र बलों में कर्नल और उससे ऊपर और अर्धसैनिक बलों में समकक्ष;
  4. डॉक्टर, वकील, प्रबंधन सलाहकार, इंजीनियर आदि जैसे पेशेवर;
  5. कृषि जोत या खाली जमीन और/या इमारतों वाले संपत्ति के मालिक; और
  6. आय/संपत्ति कर देने वाले।

एससी और एसटी के बीच क्रीमी लेयर का निर्धारण कैसे किया जा सकता है?  

  • इस फैसले में न्यायमूर्ती गवई कहा कि “सकारात्मक कार्रवाई के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से क्रीमी लेयर को बाहर करने के मानदंड अन्य पिछड़े वर्गों के लिए लागू मानदंडों से भिन्न हो सकते हैं”। हालांकि, उन्होंने यह निर्धारित करने के लिए कोई निश्चित मानदंड प्रदान करने से परहेज किया।
  • न्यायमूर्ति पंकज मिथल ने एक संभावित मानदंड का संकेत दिया जिसका उपयोग किया जा सकता है। उन्होंने अपने मत में कहा कि “यह सही रूप से देखा गया है कि सेंट स्टीफंस कॉलेज या किसी अच्छे शहरी कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे की तुलना ग्रामीण स्कूल/कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे से नहीं की जा सकती है और उसे एक ही वर्ग में नहीं रखा जा सकता है”।
  • उल्लेखनीय है कि ओबीसी की तुलना में, एससी क्रीमी लेयर का मुद्दा जटिल है। क्योंकि सकारात्मक कार्रवाई के लाभों के बावजूद, क्या जाति के ऐतिहासिक अन्याय को मिटाया जा सकता है? ओबीसी के लिए आर्थिक और सामाजिक मानदंड शायद पिछड़ेपन से ऊपर की ओर गतिशीलता की अनुमति देते हैं, लेकिन एससी और एसटी के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है।
  • फिर भी, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में अंतिम निर्णय राज्यों पर छोड़ दिया गया है कि क्रीमी लेयर अपवाद बनाया जाए या नहीं और यदि बनाया जाए तो कैसे बनाया जाए। ऐसे में उन्हें संभवतः ओबीसी आरक्षण के लिए न्यायमूर्ति आर एन प्रसाद समिति की तर्ज पर एक समिति गठित करनी होगी।

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