भारत के संविधान में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों का क्या अर्थ है, और वे प्रस्तावना का हिस्सा कैसे बने?
संदर्भ:
- आपातकाल लागू होने के 50 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में 26 जून को एक कार्यक्रम में आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों पर चर्चा होनी चाहिए।
- होसबोले ने कहा, “समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द प्रस्तावना में [आपातकाल के दौरान] जोड़े गए थे। बाद में उन्हें हटाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। इसलिए, इस पर चर्चा होनी चाहिए कि उन्हें रहना चाहिए या नहीं”।
- उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ सालों में इन शब्दों को शामिल किए जाने के खिलाफ कई कानूनी चुनौतियाँ दायर की गई हैं । पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इन शब्दों को बरकरार रखा था।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना क्या है?
- प्रत्येक संविधान का एक दर्शन होता है। भारत के संविधान में अन्तर्निहित दर्शन को उद्देश्य संकल्प में संक्षेपित किया गया था, जिसे 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था।
- संविधान की प्रस्तावना उद्देश्य संकल्प में निहित आदर्श को शब्दों में प्रस्तुत करती है। यह संविधान के परिचय के रूप में कार्य करता है, और इसमें इसके मूल सिद्धांत और लक्ष्य शामिल हैं।
- 1950 में शुरू हुई संविधान की प्रस्तावना इस प्रकार है:
“हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा इसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय;
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता;
प्रतिष्ठा और अवसर की समता;
प्राप्त कराने के लिये तथा उन सब में,
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिये;
दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 ई. को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं”।
“समाजवादी” और “पंथनिरपेक्ष” शब्द कैसे आये?
- इंदिरा गाँधी सरकार ने “गरीबी हटाओ” जैसे नारों के साथ एक समाजवादी और गरीब-समर्थक छवि के आधार पर जनता के बीच अपनी स्वीकृति को मजबूत करने का प्रयास किया था। उनकी आपातकालीन सरकार ने यह शब्द प्रस्तावना में यह रेखांकित करने के लिए डाला कि समाजवाद भारतीय राज्य का एक लक्ष्य और दर्शन था।
- हालाँकि, इस बात पर ज़ोर देने की ज़रूरत है कि भारतीय राज्य द्वारा परिकल्पित समाजवाद उस समय के सोवियत संघ या चीन का समाजवाद नहीं था – इसने भारत के सभी उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण की परिकल्पना नहीं की थी। इंदिरा गांधी ने स्वयं स्पष्ट किया था कि “हमारे पास समाजवाद का अपना ब्रांड है”, जिसके तहत “हम [केवल] उन क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण करेंगे जहां हमें आवश्यकता महसूस होगी”।
- 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने “समाजवाद” को हटाने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी थी। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था “आप समाजवाद को कम्युनिस्टों द्वारा परिभाषित संकीर्ण अर्थ में क्यों लेते हैं? व्यापक अर्थ में इसका अर्थ नागरिकों के लिए कल्याणकारी उपाय है। यह लोकतंत्र का एक पहलू है”।
“पंथनिरपेक्ष” शब्द के बारे में क्या?
- भारत के लोग अनेक आस्थाओं को मानते हैं, और उनकी एकता और भाईचारा, धार्मिक मान्यताओं में अंतर के बावजूद, प्रस्तावना में “पंथनिरपेक्षता” के आदर्श को स्थापित करके हासिल करने की कोशिश की गई थी।
- संक्षेप में, इसका मतलब यह है कि राज्य सभी धर्मों की समान रूप से रक्षा करता है, सभी धर्मों के प्रति तटस्थता और निष्पक्षता बनाए रखता है, और किसी एक धर्म को “राज्य धर्म” के रूप में कायम नहीं रखता है।
- एक पंथनिरपेक्ष भारतीय राज्य की स्थापना इस विचार पर की गई थी कि इसका संबंध इंसान और इंसान के बीच के रिश्ते से है, न कि इंसान और भगवान के बीच, जो कि व्यक्तिगत पसंद और व्यक्तिगत विवेक का मामला है।
- इसलिए, भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता धार्मिक भावना का सवाल नहीं है, बल्कि कानून का सवाल है।
- भारतीय राज्य की पंथनिरपेक्ष प्रकृति संविधान के अनुच्छेद 25-28 द्वारा सुरक्षित है।
क्या 42वें संशोधन से पहले ही ‘पंथनिरपेक्षता’ संविधान का अभिन्न अंग नहीं थी?
- आंतरिक रूप में यह हमेशा संविधान के दर्शन का एक हिस्सा था। भारतीय गणराज्य के संस्थापकों ने संविधान में पंथनिरपेक्षता के दर्शन को आगे बढ़ाने और बढ़ावा देने के स्पष्ट इरादे से अनुच्छेद 25, 26 और 27 को अपनाया।
- 42वें संशोधन ने केवल औपचारिक रूप से इस शब्द को संविधान में शामिल किया और यह स्पष्ट किया कि गणतंत्र के संस्थापक दस्तावेज़ के विभिन्न प्रावधानों और समग्र दर्शन में पहले से ही निहित था।
‘प्रस्तावना’ में ‘समाजवाद’ और ‘पंथनिरपेक्षता’ जोड़े जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला:
- उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने 25 नवंबर को 42वें संविधान संशोधन की वैधता को चुनौती देने वाली पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय और अन्य की याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिसके द्वारा 1976 में आपातकाल के दिनों में संविधान की प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़े गए थे।
- भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने कहा कि:
- “इन शब्दों को व्यापक स्वीकृति मिली है, और इनके अर्थ ‘हम भारत के लोग’ बिना किसी संदेह के समझते हैं”।
- साथ ही संविधान में संशोधन करने के लिए अनुच्छेद 368 के तहत संसद की शक्ति प्रस्तावना तक भी विस्तारित होती है।
- ‘समाजवाद’ और ‘पंथनिरपेक्षता’ संविधान के ‘आधारभूत संरचना’ का अभिन्न अंग हैं।
- संविधान एक ‘जीवंत दस्तावेज’ है, जो संसद की संशोधन शक्ति के अधीन है। संसद की यह संशोधन शक्ति ‘प्रस्तावना’ तक भी फैली हुई है और इसमें उल्लिखित तारीख ऐसी शक्ति को प्रतिबंधित नहीं करती है।
- भारतीय संदर्भ में ‘समाजवाद’ का मतलब मुख्य रूप से कल्याणकारी राज्य है जो अवसरों की समानता प्रदान करता है और निजी क्षेत्र को फलने-फूलने से नहीं रोकता है।
- इसी तरह, समय के साथ भारत ने ‘पंथनिरपेक्षता’ की अपनी व्याख्या विकसित की है। इसके अनुसार राज्य न तो किसी धर्म का समर्थन करता है और न ही किसी आस्था के पेशे और अभ्यास को दंडित करता है। संक्षेप में, पंथनिरपेक्षता की अवधारणा समानता के अधिकार के पहलुओं में से एक का प्रतिनिधित्व करती है।
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